जन्मान्ध ही थे सूरदास जी
Surdas ji was blind by birth
लेखक - पं. अवनीश पाण्डेय
प्रकाशन तिथि - अप्रैल, 2007
हिन्दी साहित्याकाश के ज्वाजल्यमान नक्षत्र, बृजभाषा के अग्रगण्य कवि तथा वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख कवि, श्रीकृष्णचरणानुरागी भक्तशिरोमणि सूरदास जी का नाम किसी के लिए भी अपरिचित नहीं है| उनकी गणना हिन्दी के तीन श्रेष्ठतम कवियों में की जाती है :
सूर सूर तुलसी शशि, उडुगण केशवदास|
अबके कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास॥
उपलब्ध तथ्यों के आधार पर सूरदासजी का जन्म दिल्ली और आगरा के मध्य सीही नामक गॉंव में सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था| हरिराय कृत भावप्रकाशवली ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में सीही को सूरदासजी का जन्म स्थल माना है| उनका जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को विक्रम संवत् 1535 (सन् 1478 ई.) में हुआ था| शिशु सूरदासजी जन्म से ही दिव्य थे, किन्तु उनके नेत्र पूर्ण रूप से बंद थे|
अन्धे बालक के प्रति माता-पिता का मन उपेक्षापूर्ण हो गया तथा वे उसकी उपेक्षा करने लगे| माता-पिता की मनोदशा को भॉंपकर और नियति के अनुरूप सूरदास जी के मन में वैराग्य जैसे दिव्य एवं अलौकिक भाव तीव्रता से पल्लवित होते गए और एक दिन वे घर से निकल पड़े तथा गॉंव में कुछ ही दूरी पर पीपल के वृक्ष के नीचे निवास करने लगे| वे लोगों को कुछ बात शकुन के रूप में बताने लगे, जो कि सत्य सिद्ध होने लगीं, जिससे वे सिद्ध महात्मा के रूप में प्रसिद्ध हुए|
एक समय की बात है, एक दिन जमींदार की गाय खो गयी| सूरदास जी ने उसका पता बता दिया| जमींदार उनके इस चमत्कार से अत्यन्त प्रभावित हुआ एवं कृतज्ञ भाव से उसने उनके लिए एक कुटिया बना दी| इसके बाद तो अनेक लोग उनके पास आने लगे और सूरदासजी का यश चहुँ ओर फैलने लगा| इससे सूरदासजी अत्यन्न खिन्न हुए, क्योंकि उनको अपने प्रभु के भजन में बाधा प्रतीत होने लगी| उन्होंने वहॉं से वह स्थान छोड़ दिया तथा गऊघाट पर रहने का मन बना लिया| वहॉं वे अपने पदों की रचना तथा अपने प्रभु सॉंवरे सलोने की भक्ति में आकण्ठ निमग्न हो गए|
सूरदासजी की अन्धता का प्रश्न आज भी विवादित है| उनके पदों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि वे जन्म से ही अन्धे नहीं थे| ऐसी कई किंवदंतियॉं प्राप्त होती हैं, जो उन्हें जन्म के पश्चात् अंधा होना सिद्ध करती हैं|
एक किंवदन्ती यह भी प्रसिद्ध है कि एक बार भ्रमण करते हुए सूरदासजी कुँए में गिर गए| तब मुरलीमनोहर श्रीश्याम ने उन्हें निकाला तथा विश्व को प्रकाशित करने वाले उन्हीं राधारमण ने उन्हें दिव्यदृष्टि प्रदान कर अपने अलौकिक एवं देवों को भी असुलभ विराट् रूप के दर्शन करवाए| सूरदास ने जिस दिव्यदृष्टि से भगवान् के रूपमाधुर्य का दर्शन किया तथा इस नश्वर जगत् को न देखना पड़े, तो उन्होंने उन बॉंकेबिहारी से वर के रूप में अन्धत्व ही मॉंगा|
ऐसा कोई समकालिक ग्रंथ नहीं है, जिसमें सूरदासजी के अंधत्व के बारे में जानकारी प्राप्त होती हो| नाभादास, गोकुलनाथ, यदुनाथ, हरिराय इत्यादि ने भी इस संबंध में किसी प्रकार का संकेत नहीं दिया है| सूरदासजी के पदों में भी इस प्रकार का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता है| ऐसी स्थिति में इनकी कुण्डली के आधार पर जन्मान्धता के प्रश्न को हल करने का प्रयत्न करते हैं|
सूरदासजी का जन्म तुला लग्न तथा मिथुन राशि में हुआ था| सूर्य उच्च का होकर गुरु के साथ सप्तम भाव में स्थित है| मंगल तुला राशि में स्थित होकर लग्न भाव में है| बुध नीच राशि में है तथा शुक्र स्वराशि का होकर अष्टमभाव में विराजमान है| शनि सिंह राशि में तथा चन्द्रमा मिथुन राशि में स्थित है| राहु एवं केतु अपनी मूल त्रिकोण राशि में होकर दशम एवं चतुर्थ भाव में शुभ फल प्रदान कर रहे हैं|
सूरदासजी की जन्मकालीन स्थितियों में मंगल लग्न में अष्टमेश शुक्र की राशि में स्थित है तथा केन्द्रस्थ सूर्य की नीच दृष्टि से पीड़ित है| साथ ही शनि की तृतीय दृष्टि से भी दोषयुक्त है| मंगल द्वितीयेश होकर नेत्ररोग का कारक है| द्वादशेश बुध रोग भाव में अपनी नीच राशि में स्थित है| शुक्र त्रिक भावस्थ है| शुक्र से द्वादश में सूर्य तथा द्वितीय में चन्द्रमा स्थित है| लग्न एवं लग्नेश पर शनि की दृष्टि है| लग्नेश अष्टम भाव में स्थित है तथा मंगल से दृष्ट है| शनि सूर्य की राशि में स्थित होकर लग्न और लग्नेश दोनों को ही पीड़ित कर रहा है|
इन योगों के आधार पर कहा जा सकता है कि सूरदासजी जन्मान्ध होने चाहिए, परन्तु यदि हम जन्म से इन्हें अन्धे मान लें, तो उनकी वासुदेव की बाललीलाओं का जो सजीव चित्रण प्राप्त होता है, वह आश्चर्यजनक है|
सूरदासजी ने ‘सूरसागर’, ‘साहित्य लहरी’, ‘सूरसारावली’, ‘सूरपचीसी’, ‘सूररामायण’, ‘सूरसाठी’, ‘राधारसकेलि’ इत्यादि ग्रंथों की रचना की है| उनके पदों में भक्ति की धारा अजस्र रूप से प्रवाहित है| भागवत पुराण पर आधारित ‘सूरसागर’ में चित्रित वात्सल्य भाव का कोई सानी नहीं है| जन्मान्ध होते हुए भी उन्होंने यशोदानन्दन की बाल लीलाओं का ऐसा सजीव चित्रण किया है, जो कि दृष्टिवंत के लिए भी दुष्कर होगा|
सूरदास जी ने लीलापुरुषोत्तम, नटवरनागर कन्हैया की ऐसी छवि जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत की, जिसकी समता विश्व में कोई दूसरा नहीं कर सकता था| वे वात्सल्य भाव, सखाभाव, वियोग-शृंगार, माधुर्यभाव के चित्रण में एकछत्र सम्राट् थे|
सन् 1509-10 के लगभग उन्होंने सूरदासजी ने महाप्रभु वल्लभाचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया और वे अष्टछाप के प्रमुख कवि बन गए| वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होने के उपरान्त चन्द्रसरोवर के समीप पारसौली गॉंव में रहने लगे| वहीं 1583 ई. में उन्होंने देह त्याग किया| उनकी मृत्यु पर विट्ठलनाथ जी ने शोकार्त्त होकर कहा ‘पुष्टिमारग को जहाज जात है सो जाको कछु लेना होय सो लेउ|’