मैं हूँ शनि!
I am Saturn!
प्रकाशन तिथि : मई, 2007
शनि का स्मरण आते ही एक भयानक और कृष्णवर्णी प्रतिमा का ध्यान मन में आता है और यदि पंडित जी किसी को यह कह दें कि साढ़ेसाती या ढैया भी चल रही है, तो फिर कहना ही क्या? डर से ही बुरा हाल हो जाता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है|
जनसाधारण में धारणा यही है कि शनि सबसे क्रूर ग्रह है और जो भी व्यक्ति इनकी ढैया या साढ़ेसाती से पीड़ित होता है, उसके जीवन में सिवाय दु:खों के कुछ भी नहीं बचता है| उसे दरिद्रता, कष्ट, पदच्युति, अपयश, विवाद, दुर्घटना ये परिणाम भोगने पड़ते हैं, लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है| शनि महाराज केवल दु:ख ही नहीं देते हैं, अपितु मान-सम्मान, उच्च सफलता, विजय, धन-लाभ आदि शुभ फल भी देते हैं| सौरमंडल में स्थित ग्रहों में भी शनि सबसे खूबसूरत ग्रह है| नवग्रहों में शनि सबसे अधिक समय तक एक राशि में रहते हैं, इसलिए दीर्घकाल तक जातक इनके प्रभाव में रहता है| शनि को सभी ग्रहों में न्यायाधीश की भूमिका दी गई है, इसलिए किसी भी व्यक्ति द्वारा पूर्वजन्म में या इस जन्म में किए गए कर्मों का फल शनि की दशान्तर्दशा या ढैया एवं साढ़ेसाती में भोगना पड़ता है| शनि एक निष्पक्ष न्यायाधीश हैं| वे किए गए सभी कर्मों का फल निश्चित रूप से प्रदान करते हैं| शनि भगवान् सूर्य के पुत्र हैं, लेकिन फिर भी ये पिता सूर्य को अपना शत्रु समझते हैं| शनि की ऐसी ही वैचित्रिक विशिष्टताओं की व्याख्या करने वाले अनेकानेक प्रसंग प्राचीन भारतीय वाङ्गमय में उपलब्ध हैं| सभी कथाओं से एक बात तो पूर्णत: सिद्ध होती है कि शनि जन्म से ही बहुत अधिक सामर्थ्य सम्पन्न थे| शनि से सम्बन्धित अनेक आख्यान पुराणों में उपलब्ध हैं| शनि एवं सूर्य से सम्बन्धित एक आख्यान यहॉं दिया गया है|
भगवान् सूर्य के नौ पुत्रों में शनि अपने अतुलित पराक्रम में सर्वोपरि हैं| यमुना शनि की सहोदरा हैं और काल नियंत्रक मृत्यु के देवता यमराज शनि के अनुज हैं| पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार सभी संतानों के योग्य होने पर भगवान् सूर्य ने प्रत्येक संतान हेतु एक-एक लोक की व्यवस्था की, किन्तु स्वभावत: पाप प्रभाव शनि अपने एक लोक से संतुष्ट नहीं हुए| उन्होंने समस्त लोकों पर आक्रमण करने की योजना बनाई| जब सूर्य को शनि की इस भावना का पता चला, तो उन्हें बहुत कष्ट हुआ| उन्होंने शनि को बहुत समझाया, लेकिन शनि पर उनके परामर्श का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा| अंतत: सूर्य ने भगवान् शिव से निवेदन किया कि वे शनि को समझाएँ, लेकिन शनि पर भगवान् शिव के समझाने का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा और कुद्ध हो भगवान् शिव ने शनि से युद्ध प्रारम्भ कर दिया| शनि ने अपने अद्भुत पराक्रम से नन्दी सहित समस्त शिवगणों को परास्त कर दिया| अपने सैन्यबल का संहार देख कुपित हो भगवान् शिव ने अपना तृतीय नेत्र खोल दिया| शनि ने भी अपनी मारक दृष्टि का संधान किया| शिव और शनि की दृष्टियों से उत्पन्न एक अप्रतिम ज्योति ने शनि लोक को आच्छादित कर लिया|
इससे क्रुद्ध होकर भगवान् शिव ने अपने त्रिशूल से शनि पर प्रहार किया| शनि यह भीषण आघात सहन नहीं कर सके और मूर्छित हो गए| पुत्र की यह स्थिति देखकर सूर्य का पुत्रमोह प्रबल हुआ और उन्होंने आशुतोष भगवान् शिव से शनि की प्राणरक्षा के लिए कातर स्वर में निवेदन किया| भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर शनि के इस संकट को हर लिया| इस घटना से शनि ने भगवान् शिव की सर्वसमर्थता स्वीकार कर ली और उनसे क्षमा याचना की| साथ ही शनि ने यह इच्छा भी अभिव्यक्त की कि वह अपनी समस्त सेवाएँ शिव को समर्पित करना चाहता है| भगवान् शिव भी शनि के पराक्रम से प्रसन्न थे और शनि के प्रचंड पराक्रम से अभिभूत शिव ने शनि को दंडाधिकारी नियुक्त कर दिया|
शनि के प्रकोप से कोई भी नहीं बच सका| यहॉं तक कि राजा हरिश्चन्द्र, नल, भगवान् श्रीराम, पिप्लादमुनि एवं पांडवों के जीवन में भी शनि की कुदृष्टि के कारण भयंकर उथल-पुथल मच गई थी|
शनि की ढैया और साढ़ेसाती
शनि जब जन्मराशि से चतुर्थ, पंचम और अष्टम स्थान में होते हैं, तो वह 2.5 वर्ष का समय ‘ढैया’ कहलाता हैऔर जब शनि जन्मराशि से द्वादश, प्रथम या द्वितीय होते हैं, तो वह 7.5 वर्ष का समय ‘साढ़ेसाती’ कहलाती है| सामान्यत: माना जाता है कि यह समय सभी के लिए खराब ही आता है, लेकिन ऐसा नहीं है| शनि यदि जन्मपत्रिका में स्वराशि, उच्च राशि या अनुकूल स्थिति में हैं, तो ‘साढ़ेसाती’ और ‘ढैया’ के समय जातक को मान-सम्मान, सफलता और अन्य शुभ फल ही प्राप्त होते हैं और यदि शनि जन्मपत्रिका में अनुकूल नहीं है, तो ढैया और साढ़ेसाती में ‘राजा को भी रंक’ बनते देर नहीं लगती है|
इतने भीषण होने पर भी शनि महाराज अपने उपासकों को कभी कष्ट नहीं देते हैं| अन्य ग्रहों की तरह ही शनि भी उपाय करने से, स्तुति, जप आदि से शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं| शनि जयन्ती का ये अवसर शनि महाराज को प्रसन्न करने के लिए सर्वोत्तम अवसर है| यदि आप भी शनि की ढैया अथवा साढ़ेसाती से पीड़ित हैं, तो निम्नलिखित में से कोई उपाय करना आपके लिए लाभदायक होगा|
जिन जातकों की जन्मपत्रिका में शनि-चन्द्र का विषयोग, शनि-सूर्य की युति, सप्तम या अष्टम भाव में शनि-मंगल या शनि-राहु की युति हो, नीचस्थ शनि, मारकेश शनि, शनि की ढैया, साढ़ेसाती या कंटक शनि हो, तो शनि की शांति के उपाय अवश्य करने चाहिए|
1. शनिवार के दिन सायंकाल पीपल के वृक्ष के समक्ष सरसों के तेल का दीपक जलाएँ|
2. अपने वजन के बराबर कच्चे कोयले तुलवाकर किसी भी शनिवार को बहते जल में प्रवाहित करें|
3. शनिवार को सरसों के तेल से शनि का अभिषेक करें|
4. शनि चालीसा अथवा अग्रलिखित शनि मंत्र की 5 माला प्रतिदिन करें|
मंत्र : ॐ शं शनैश्चराय नम:|
5. काले घोड़े की नाल का छल्ला मध्यमा अंगुली में शनिवार के दिन धारण करें|
6. शनिदोष निवारक सातमुखी रुद्राक्ष की माला धारण करें|
7. शनिदोष निवारण के लिए हनूमान् जी की उपासना या हनूमान् जी को सिन्दूर चढ़ाना भी बहुत कारगर उपाय है|
8. शनि के 108 नामों का प्रतिदिन जप करें|
9. शनि की शांति के लिए एक ‘शनैश्चर स्तवराज’ का वर्णन पुराण में किया गया है, जिसका पाठ करने से शनिकृत सभी अरिष्टों से मुक्ति मिलती है| धर्मराज युधिष्ठिर ने शनि की शांति के लिए इसका पाठ किया था| परिणामत: उन्हें अज्ञातवास, वनवास एवं कष्टों से मुक्ति प्राप्त हुई थी|
ॐ अस्य श्रीशनैश्चर स्तवराजस्य सिन्धुद्वीप ॠषि: गायत्री छन्द:, आपो देवता, श्री शनैश्चर प्रीत्यर्थे जपे विनियोग:|
ध्यात्वा गणपतिं राजा धर्मराजो युधिष्ठिर:|
धीर: शनैश्चरस्येमं चकार स्तवमुत्तमम्॥
शिरो में भास्करि: पातु भालं छायासुतोऽवतु|
कोटराक्षो दृशौ पातु शिखिकण्ठनिभ: श्रुती॥
घ्राणं मे भीषण: पातु मुखं बलिमुखोऽवतु|
स्कन्धौ संवर्तक: पातु भुजौ मे भयदोऽवतु॥
सौरिर्मे हृदयं पातु नाभिं शनैश्चरोऽवतु|
ग्रहराज: कटिं पातु सर्वतो रविनन्दन:॥
पादौ मन्दगति: पातुकृष्ण: पात्वखिलं वपु:|
रक्षामेतां पठेन्नित्यं सौरेर्नामबलैर्युताम्॥
सुखी पुत्री चिरायुश्च स भवेन्नात्र संशय:|
ॐसौरि: शनैश्चर: कृष्णो नीलोत्पलनिभ: शनि:॥
शुष्कोदरो विशालाक्षो दुर्निरीक्ष्यो विभीषण:|
शितिकण्ठनिभो नीलश्छायाहृदयनन्दन:॥
कालदृष्टि: कोटराक्ष: स्थूलरोमा वलीमुख:|
दीर्घो निर्मांसगात्रस्तु शुष्को घोरो भयानक:॥
नीलांशु: क्रोधनो रौद्रो दीर्घश्मश्रुर्जटाधर:|
मन्दो मन्दगति: खञ्जोऽतृप्त: संवर्तको यम:॥
ग्रहराज: कराली च सूर्यपुत्रो रवि: शशि|
कुजो बुधो गुरु: काव्यो भानुज: सिंहिकासुत:॥
केतुर्देवपतिर्बाहु: कृतान्तो नैर्ॠतस्तथा|
शशी मरुत्कुबेरश्च ईशान: सुर आत्मभू:॥
विष्णुर्हरो गणपति: कुमार: काम ईश्वर:|
कर्ता हर्ता पालयिता राज्यभुग् राज्यदायक:॥
छायासुत: श्यामलांगो धनहर्ता धनप्रद:|
क्रूरकर्मविधाता च सर्वकर्मावरोधक:॥
तुष्टो रुष्ट: कामरूप: कामदो रविनन्दन:|
ग्रहपीड़ाहर: शान्तो नक्षत्रेशो ग्रहेश्वर:॥
स्थिरासन: स्थिरगतिर्महाकायो महाबल:|
महाप्रभो महाकाल: कालात्मा कालकालक:॥
आदित्यभयदाता च मृत्युरादित्यनन्दन:|
शतभिषर्क्षदयित: त्रयोदशित्तिथिप्रिय:॥
तिथ्यात्मा तिथिगणनो नक्षत्रगणनायक:|
योगराशि: मुहूर्तात्मा कर्ता दिनपति: प्रभु:॥
शमीपुष्पप्रिय: श्यामस्त्रैलोक्या-भयदायक:|
नीलवासा: क्रिया-सिन्धुर्नीलाञ्जनचयच्छवि:॥
सर्वरोगहरो देव: सिद्धो देवगणस्तुत:|
अष्टोत्तरशतं नाम्नां सौरेश्छायासुतस्य य:॥
पठेन्नित्यं तस्य पीड़ा समस्ता नश्यति ध्रुवम्|
कृत्वा पूजां पठेन्मर्त्यो भक्तिमान् य: स्तवं सदा॥
विशेषत: शनिदिने पीड़ा तस्य विनश्यति|
जन्मलग्ने स्थितिर्वापि गोचरे क्रूरराशिगे॥
दशासु च गते सौरेस्तदा स्तवमिमं पठेत्|
पूजयेद्य: शनिं भक्त्या शमीपुष्पाक्षताम्बरै:॥
विधाय लोहप्रतिमां नरो दु:खाद्विमुच्यते|
बाधा त्वन्यग्रहाणां च य: पठेत्तस्य नश्यति॥
भीतो भयाद्विमुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्|
रोगी रोगाद्विमुच्येत नर: स्तवमिमं पठेत्॥
पुत्रबान्धनवान् श्रीमाञ्जायते नात्र संशय:॥
॥ नारद उवाच ॥
स्तवं निशम्य पार्थस्य प्रत्यक्षोऽभूच्छनैश्चर:|
दत्त्वा राज्ञे वरं कामं शनिश्चान्तर्दधे तदा॥