विष्णु के भगवान् नृसिंह
पुराण-प्रतिपादत अवतारों में विकास-वाद का क्रम व्याख्यात होता है। धर्मग्रन्थों से ज्ञात होता है कि सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वत्र जल ही जल था,
अतः जगत् के विकास में मत्स्य ही प्रथम जीव था, जिसने प्राणि की रचना का प्रतिनिधित्व किया। जल के बाद पर्वतों का उदय प्रारम्भ हुआ,
जिसका प्रतीक कूर्म-अवतार, समुद्रमंथन उस विकास का सूचक है। जल से भूमि के उदय में सृष्टि के विकास के तृतीय सोपान का मर्म छिपा
है, जो वराहावतार ने सम्पन्न किया। नृसिंहावतार में मानव एवं पशु-दोनों के विकास की कथा छिपी है।
विष्णु का अवतारवाद भागवत अथवा वैष्णव सम्प्रदाय की एक विशिष्ट देन है। विष्णु के अवतारों के तीन प्रभेद उल्लेखित हैं। पूर्णावतार,
आवेशावतार एवं अंशावतार। विष्णु के अवतारों की संख्या में बड़ा मतभेद है। वराहपुराण में सर्वमान्य रूप से दस अवतारों का उल्लेख है।
अग्निपुराण में भी यही साम्यता है। 1. मत्स्य, 2. कूर्म 3. वराह 4. नृसिंह, 5. वामन 6. परशुराम 7. राम 8. कृष्ण 9. बलराम 10. बल्कि।
प्रतिमा विज्ञान के अनुसार नृसिंहावतार की वैष्णव प्रतिमा की दो प्रधान कोटियॉं हैं - 1. गिरिज नृसिंह तथा 2. स्थाणु नृसिंह। प्राचीन परम्पराओं
के अनुसार विष्णु के नृसिंहावतार का उद्देश्य हिरण्यकशिपु का वध और प्रह्लाद की रक्षा करना था। हिरण्यकशिपु जब अपने पुत्र पुत्र भक्त प्रह्लाद
का वध कराने में किसी प्रकार सफल नहीं हुआ, तब उसने प्रह्लाद को मारने का बीड़ा स्वयं उठाया और उसे वज्र शृंखलाओं द्वारा जयस्तम्भ से
बॉंध दिया, किन्तु भक्त प्रह्लाद द्वारा विष्णु स्तुति करने पर नृसिंह-भगवान् प्रकट हुए और दानव का नाश कर पृथ्वी का राज्य प्रह्लाद को प्रदान
किया।
पुराण नृसिंह की मूर्तियों में दो तथ्यों पर जोर देते हैं। 1. चतुर्भुज नृसिंह दो भुजाओं से असुर को विदीर्ण करते हुए तथा पीछे की दो भुजाएँ विष्णु
के आयुध गदा एवं चक्र धारण किए होती हैं।
2. इन मूर्तियों में नृसिंह को संघर्षरत अवतार के रूप में असुर के साथ दर्शाया जाता है। इस प्रकार की मूर्ति में असुर को खड्ग एवं खेटक हाथ
में लिए नृसिंह से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया जाता है। इनमें प्रथम प्रकार की मूर्ति चन्द्रावती के देवी मन्दिर के बाहर पाषाण-खण्ड पर उत्कीर्ण
है। इसमें चतुर्भुज नृसिंह अपनी गोद में हिरण्यकशिपु को लिटाये अपने हाथों के नाखूनों से राक्षस का उदर विदीर्ण करते हुए दर्शाए गए हैं।
केकड़ी के निकटवर्ती ग्राम बधेरा से नृसिंह प्रतिमा का शिलाखंड प्राप्त हुआ है, जो राजपूताना संग्रहालय (अजमेर) में संरक्षित है, जिसमें नृसिंह
ने प्रह्लाद को अंक में बैठा रखा है। ब्यावर (अजमेर) के ब्रिटिश कालीन श्री वेंकटेश श्रीरंग जी मन्दिर में नृसिंह संग प्रह्लाद की नयनाभिराम वृहद्
प्रतिमा है। मन्दिर की स्थापत्यकला दक्षिण भारतीय शैली पर आधारित है। विधानानुसार नृसिंहावतार मानव एवं पशु रूप धारण किए, शीश पर
मुकुट, बड़े नाखून अपनी गोद / जंघा (जानू) पर स्नेह के साथ प्रह्लाद को बैठाए हुए हैं। बालक प्रह्लाद आँखे मूँदे, करबद्ध विनम्र भाव से स्तुति
करते प्रतीत हो रहे हैं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
अवतारवाद की दार्शनिक व्याख्या में भगवद्गीता के श्लोक का भाव परिलक्षित होता है।