विधिवत् श्राद्ध ही करता है पितरों को सन्तुष्ट
भीष्म पितामह ने धर्मराज युधिष्ठिर को श्राद्ध की महिमा तथा पिण्डदान की विधि बताते हुए कहा था कि “हे राजन्! मेरे पिता शान्तनु का जब देहावसान हुआ था, तब मैं उनका श्राद्ध करने के लिए हरिद्वार गया। वहाँ पहुँचकर मैंने पिता का श्राद्धकर्म आरम्भ किया। इस कार्य में मेरी माता गंगा ने भी मेरी सहायता की। तत्पश्चात् मैंने बहुत से सिद्ध महर्षियों को आदरपूर्वक बिठाकर जलदान आदि सारे कार्य आरम्भ किए। एकाग्रचित्त होकर शास्त्रोक्त विधि से पिण्डदान करने से पूर्व सभी कार्य समाप्त करके मैंने विधिवत् पिण्ड देना प्रारम्भ किया। उसी समय एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई। पिण्डदान देने के लिए पिण्डवेदी पर जो कुश बिछाए थे, उन्हें भेदकर एक बहुत ही सुन्दर हाथ बाहर निकला। उस विशाल भुजा में कई आभूषण थे। ऊपर उठी अपने पिता की भुजा को देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। जब मुझे शास्त्रीय विधि का विचार आया, तो मेरे मन में सहसा यह बात स्मरण हो आयी कि हाथ पर पिण्ड देने का विधान नहीं है और न ही पितर साक्षात् प्रकट होकर मनुष्य के हाथ से पिण्ड लेते हैं। शास्त्र की आज्ञा तो यही है कि कुशों पर पिण्डदान करें। इसी बात का विचार करते हुए मैंने पिता की भुजा का आदर नहीं करते हुए शास्त्र को ही प्रमाण मानकर कुशों पर ही सभी पिण्डों का दान किया। तदनन्तर मेरे पिता की वह भुजा अदृश्य हो गई। तब मुझे स्वप्न में पितरों ने दर्शन दिया और प्रसन्नतापूर्वक कहा कि तुम्हारे इस शास्त्रीय ज्ञान से हम बहुत प्रसन्न हैं। तुमने आत्मा, धर्म, शास्त्र, वेद, पितृगण, ऋषिगण, गुरु, प्रजापति और ब्रह्माजी इन सबका मान बढ़ाया है। तुम्हें धर्म के विषय में मोह नहीं हुआ।
नारदपुराण में वर्णन है कि भीष्म पितामह गया में पिण्ड देने लगे, तो उनके पिता शान्तनु के हाथ सामने निकल आए, परन्तु भीष्म पितामह ने भूमि पर ही पिण्डदान किया। इससे प्रसन्न होकर शान्तनु बोले, "वत्स! तुम शास्त्रीय सिद्धान्त पर दृढ़तापूर्वक डटे हुए हो, अतः तुम त्रिकालदर्शी हो और जब तुम्हारी इच्छा हो, तभी मृत्यु तुम्हारा स्पर्श करे।" उक्त आख्यान से स्पष्ट कि विधिवत् श्राद्धकर्म ही पितरों को सन्तुष्ट करता है, इसलिए श्रद्धा के साथ-साथ विधि के अनुसार ही श्राद्धकर्म सम्पन्न करना चाहिए।