स्वामी विवेकानन्द जन्मकुण्डली विश्लेषण
Horoscope Analysis of Swami Vivekananda
पं. अवनीश पाण्डेय
जनवरी, 2011
12 जनवरी, 1863 सोमवार को कोलकाता में पौष मास की कृष्णपक्ष की सप्तमी को मकर संक्रान्ति के दिन जहॉं सूर्यदेव पूर्वी क्षितिज पर उदय होना चाहते थे और भक्तगण उनके स्वागत एवं अर्चन हेतु समारोहपूर्वक गंगासागर में स्नान कर प्रस्तुत हो रहे थे, लगभग उसी समय 3 गौरमोहन मुखर्जी रोड पर विश्वनाथ दत्त के परिवार में भगवान् वीरेश्वर की कृपा से भुवनेश्वरीदेवी के गर्भ से शिशु रूप में हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के उस सूर्य ने जन्म लिया, जिसके प्रकाश से सम्पूर्ण जगत् 1893 के पश्चात् आलोकित होता रहा है| वह सूर्य और कोई नहीं स्वामी विवेकानन्द हैं| उनका जन्म धनु लग्न और धनु नवांश में हुआ| वर्गोत्तमी लग्न के साथ-साथ उनकी कुण्डली में सूर्य भी वर्गोत्तमी है| धर्म और गुरु भाव का स्वामी एवं आत्मकारक सूर्य षड्बल में बली होकर जन्मकुण्डली में अतिमित्र बृहस्पति की राशि धनु एवं अपने ही नक्षत्र उत्तराषाढ़ा में लग्न में स्थित होकर स्वामी जी को तेजस्वी, आत्मविश्वासी, साहसी, स्वाभिमानी, बलवान्, निडर, मेधावी, ख्यातिप्राप्त, गुरुभक्त, प्रभावशाली व्यक्तित्व, सुगठित देह, गौरवर्ण एवं आकर्षक मुख वाला तथा धर्म एवं न्यायप्रिय बना रहा है|
अमात्यकारक और अष्टमेश चन्द्रमा अष्टम भाव और संन्यास के कारक एवं द्वितीयेश-तृतीयेश शनि के साथ अपने ही नक्षत्र हस्त में दशम भाव में सम ग्रह बुध की राशि कन्या में स्थित है और शास्त्रोक्त पुनर्फू योग का निर्माण कर रहा है| कस्प कुण्डली में वह धर्म भाव में शनि और लग्नेश एवं धर्म-गुरु के कारक बृहस्पति के साथ स्थित है| इस सबके प्रभाव से स्वामी जी धार्मिक, दार्शनिक, शोध अभिवृत्ति से युक्त, गुरुनिष्ठ, गुरुकृपा प्राप्त, संन्यासी तथा विदेश में सफलता एवं ख्याति प्राप्त थे|
पंचमेश-द्वादशेश मंगल षड्बल में बली होकर मूलत्रिकोण राशि मेष में पंचम भाव में केतु के नक्षत्र एवं द्वादश भावस्थ राहु के उपनक्षत्र में पंचम-नवम भाव के कारक एवं लग्न-चतुर्थ भाव के स्वामी गुरु से परस्पर दृष्टि सम्बन्ध स्थापित कर पाराशरीय राजयोग का निर्माण कर रहा है| इस ग्रह-स्थिति के प्रभाव से स्वामी जी लालिमायुक्त गौरवर्ण, सुगठित-बलिष्ठ देह वाले, कुश्ती-व्यायाम के अखाड़े में पसीना बहाने वाले, तलवार, लाठी जैसे शस्त्रों के संचालन में पारंगत, धर्मनिष्ठ, गुरुभक्त, कुशाग्रबुद्धि एवं अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी, वेदान्ती, आरम्भ से ध्यान, संन्यास एवं मोक्ष की ओर उन्मुख तथा विदेशों में अपने शिष्य और अनुयायी बनाने वाले बने|
जन्म दिनांक : 12 जनवरी, 1863
जन्म समय : 6:37 बजे
जन्म स्थान : कोलकाता
स्वामी जी की कुण्डली में सप्तमेश-दशमेश बुध द्वितीय भाव में यद्यपि केन्द्राधिपत्य दोष से दूषित होकर अस्त है, परन्तु कस्प कुण्डली में वह भाग्येश सूर्य एवं षष्ठेश-एकादशेश शुक्र के साथ लग्न में स्थित है और षड्बल में पर्याप्त बली है| बुध द्वितीयेश शनि के साथ भाव परिवर्तन सम्बन्ध स्थापित कर अष्टमेश चन्द्रमा के नक्षत्र एवं पंचमेश-द्वादशेश मंगल के उपनक्षत्र में स्थित होकर आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्म की प्रवृत्ति, विदेश में सफलता, परिव्राजक जीवन और आध्यात्मिक उपलब्धि सुनिश्चित कर रहा है|
सप्तमेश बुध की अस्तगत स्थिति, शनि की राशि में उसकी उपस्थिति और उसके साथ राशि परिवर्तन का सम्बन्ध, अष्टमेश चन्द्रमा के नक्षत्र में सप्तमेश की अवस्थिति, सप्तमेश का षष्ठेश (सप्तम भाव का द्वादशेश) एवं धर्मेश के साथ कस्प में युति सम्बन्ध, सप्तम भाव पर सूर्य एवं शनि की दृष्टि, कुण्डली में संन्यास एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में जाने के योगों की बहुलता तथा पुनर्फू योग के कारण विवेकानन्द जी का विवाह परिजनों के प्रयासों के बावजूद नहीं हुआ|
स्वामी जी की कुण्डली में गुरु लग्नेश और चतुर्थेश होकर एकादश भाव में सम ग्रह शुक्र की राशि तुला में पंचमेश-द्वादशेश मंगल के नक्षत्र चित्रा में स्थित है और नक्षत्रेश मंगल के साथ परस्पर दृष्टि सम्बन्ध बना रहा है| कस्प कुण्डली में गुरु नवम भाव में अष्टमेश चन्द्रमा और द्वितीयेश-तृतीयेश शनि के साथ युत है एवं लग्न-पंचम भाव तथा नवमेश सूर्य, पंचमेश-द्वादशेश मंगल आदि पर दृष्टि डाल रहा है| स्वामी जी का आध्यात्मिक क्षेत्र में गमन एवं वहॉं अभूतपूर्व सफलता प्राप्त करना, श्रेष्ठ गुरु की प्राप्ति इत्यादि इसी ग्रह-स्थिति का ही परिणाम है|
द्वितीय भाव में दो सौम्य ग्रहों वाणी के कारक बुध एवं कला के नैसर्गिक कारक शुक्र की उपस्थिति है| इनके प्रभाव से विवेकानन्द की आवाज मधुर थी तथा वे गायन विद्या में पारंगत एवं भाषण कला में श्रेष्ठ थे| उनका गायन व्यावसायिक गायकों के समकक्ष था| उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस तो उनकी गायन कला के अत्यधिक प्रशंसक थे| कई बार ऐसे भी अवसर आए हैं, जब स्वामी जी के गायन को सुनते-सुनते रामकृष्ण जी भावातिरेक समाधि में चले गए| उनकी भाषण कला भी अद्भुत थी| न केवल भारत के वरन् पश्चिम के विद्वान् भी उनके भाषणों से अत्यधिक प्रभावित थे| धर्म महासभा में उनके भाषणों के सम्बन्ध में वहॉं के समाचार पत्रों की प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार रही ‘‘यह सुन्दर और आर्कषक व्यक्तित्व का आश्चर्यजनक वक्ता ही महासभा का सबसे प्रमुख आकर्षण रहा|’’ लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् एवं श्रेष्ठ वक्ता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था कि
‘‘ भारतवर्ष में मैंने जितने वक्ताओं को देखा है, उनमें वे सर्वोत्तम थे|’’
षड्बल में बली एवं उच्चाभिलाषी द्वितीयेश-तृतीयेश शनि सम ग्रह बुध की राशि कन्या में एवं अष्टमेश चन्द्रमा के नक्षत्र हस्त में स्थित होकर नक्षत्रेश चन्द्रमा के साथ दशम भाव में स्थित है और दशमेश बुध के साथ भाव परिवर्तन सम्बन्ध बना रहा है| कस्प कुण्डली में शनि नवम भाव में चन्द्रमा और गुरु के साथ युति सम्बन्ध बना रहा है और पंचमेश-द्वादशेश मंगल के साथ परस्पर दृष्टि सम्बन्ध स्थापित कर रहा है| धर्म, दर्शन, अध्यात्म एवं योग के सम्बन्ध में स्वामी जी की आश्चर्यजनक उपलब्धियॉं और विदेशों में उनको प्राप्त प्रसिद्धि, सम्मान एवं सफलता उपर्युक्त ग्रह स्थिति का ही परिणाम थी| महर्षि देवेन्द्रनाथ ने नरेन्द्र को किशोरावस्था में ही कहा था कि ‘‘तुममें योगी बनने के सारे लक्षण विद्यमान हैं| ध्यानाभ्यास करने पर योगशास्त्र में उल्लिखित सारे फल तुम शीघ्र प्राप्त करोगे|’’ राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि उनकी पुस्तकों, उनके व्याख्यानों, तत्कालीन व्यक्तियों के संस्मरणों इत्यादि स्रोतों से उनके योग विषयक सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान का परिचय प्राप्त होता है|
विवेकानन्द जी की कुण्डली में पंचमेश और षष्ठेश परस्पर केन्द्र में हैं एवं लग्नेश गुरु बली है| इसी प्रकार लग्नेश गुरु और दशमेश बुध दोनों ही चर राशि में हैं तथा भाग्येश सूर्य बली है| इस प्रकार शास्त्रोक्त दो प्रकार के शंख योगों का निर्माण हो रहा है|
स्वामी जी की कुण्डली में शुभ भेरीयोग का निर्माण भी हो रहा| गुरु से केन्द्र भाव में शुक्र स्थित है, गुरु स्वयं लग्नेश है| भाग्येश सूर्य बली है|
उनकी कुण्डली में चन्द्रकृत सुनफायोग (गुरु से), शुक्र एवं बुध से सूर्यकृत वेशी योग आदि का भी निर्माण हो रहा है|
दशाओं के दर्पण में विवेकानंद जी
विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी, 1863 को चन्द्रमा की महादशा में हुआ था| तीन-चार वर्ष की अवस्था के पश्चात् जब उनका अध्ययन आरम्भ हुआ, तो उसके आरम्भ होते ही जून, 1867 में मंगल की महादशा प्रारम्भ हो गई| पंचमेश एवं मूलत्रिकोणस्थ मंगल की इस दशा ने उनके अध्ययन और ज्ञान की बहुत सुदृढ़ नींव तैयार कर दी| सन् 1874 से उन्हें राहु की महादशा लगी और द्वादश भावस्थ राहु की इस महादशा के फलस्वरूप उन्हें देश-विदेश में और सम्पूर्ण भारत में घूमने का अवसर मिला| परिव्राजक की तरह उन्होंने देशाटन किया, लेकिन कहीं भी एक जगह स्थिर होकर नहीं रह सके| सन् 1877 में जैसे ही राहु महादशा में गुरु की अन्तर्दशा आरम्भ हुई, तो वे उस परमलक्ष्य की ओर उन्मुख हुए जिसके लिए विधाता के विधान से वे पृथ्वी पर अवतरित हुए थे| अब उनकी आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ होने वाली थी| यह दशा जुलाई, 1879 तक चली| नवम्बर, 1881 में परिव्रज्या, अध्यात्म और गूढ़ता के कारक शनि की अन्तर्दशा में पहली बार उनकी मुलाकात रामकृष्ण परमहंस से हुई| इसके बाद भी कुछ समय तक वे संशय और द्वन्द्व से मुक्त नहीं हो सके थे, लेकिन जैसे ही उन्हें 1882 से बुद्धि और ज्ञान के कारक बुध की अन्तर्दशा प्रारम्भ हुई, तो उनकी समस्त शंकाओं का समाधान होने लगा और उनके मन में संशयरहित नवीन ज्ञान का उदय हुआ| इनकी जन्मपत्रिका में बुध ग्रह लग्नकुण्डली के एकादशेश शुक्र (जो कि प्राप्ति अथवा लाभ का कारक है) के साथ स्थित है| इसी के फलस्वरूप उन्हें इस दशा में एक अच्छे गुरु की प्राप्ति हुई, जिसके लिए वे वर्षों से भटक रहे थे| इसके बाद जून, 1886 से अगस्त, 1886 के मध्य जब उन्हें सूर्य की प्रत्यन्तर्दशा चल रही थी| तो उसी दौरान रामकृष्ण जी की परम कृपा उन पर हुई और मृत्यु से पहले उन्होंने निर्विकल्प समाधि का अनुभव कराते हुए विवेकानंद जी को अपना समस्त ज्ञान और सिद्धियॉं प्रदान कर दी| उनकी जन्मपत्रिका में सूर्य नवमेश है और धर्म एवं अध्यात्म का स्पष्ट कारक बन रहा है|
1888 में जब उन्हें परिव्रज्या के वास्तविक कारक ग्रह शनि की प्रत्यन्तर्दशा प्रारम्भ हुई, तो उनके संन्यास जीवन की वास्तविक शुरुआत हुई और वे एक परिव्राजक के रूप में देशाटन के लिए निकल पड़े| जिस प्रकार शनि ग्रह अपरिग्रह, अनासक्ति, कठोरता और कष्टों का कारक है, उसी प्रकार उनके जीवन में भी अब इन सबका समावेश हो चुका था| 1888 से 1892 के बीच जब उन्हें नवमेश सूर्य, अष्टमेश चन्द्रमा और पंचमेश मंगल की अन्तर्दशा चल रही थी, तो उन्हें अनेक आध्यात्मिक व्यक्तियों से मिलने का और अपने ज्ञान को बढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ| जून, 1892 में उन्हें लग्नेश-चतुर्थेश एवं अध्यात्म के प्रमुख कारक ग्रह गुरु की महादशा प्रारम्भ हुई| इस दशा में उनका ज्ञान सभी सीमाओं को पार करते हुए देश-विदेश के कोने-कोने तक पहुँचा, क्योंकि अगले वर्ष 1893 में भी उन्हें विश्व धर्म सम्मेलन में बोलने का मौका मिला, जिससे उनकी ख्याति देश-विदेश तक पहुँची| इसी दशा में उन्होंने रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना की| अन्त में 4 जुलाई, 1902 को शुक्र अन्तर्दशा में और बुध की प्रत्यन्तर्दशा में अध्यात्म के इस महान् सितारे का परमतत्त्व में समावेश हो गया| इस समय भी उन्हें द्वितीय (मारक भाव) भावस्थ शुक्र और सप्तम (मारक भाव) भाव के स्वामी जो कि द्वितीय भाव में है, की दशा चल रही थी| ऐसा लगता है जैसे इनके जीवन के समस्त उतार-चढ़ाव दशाओं में पहले ही भली प्रकार से निर्धारित किए हुए थे|
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